नई दिल्ली। भारत की प्रमुख समस्या ठेकेदारी प्रथा-शिक्षा रोजगार एवं आरक्षण के लिए एक अभिशाप” विषय पर कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में शनिवार को बतौर मुख्य वक्ता नर्मदा नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने कहा कि देश में विकास के नाम पर जो हो रहा है उससे वंचित और और पीड़ित के साथ आजीविका का कोई सकारात्मक प्रभाव नहीं दिखता है। शिक्षा रोजगार का महत्व बताते हुए संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि संविधान में सबको जीने का अधिकार है, सबको रोजगार पाने का अधिकार है लेकिन आज ठेकेदारी और निजीकरण को बढ़ावा मिल रहा है और मजदूर और किसान बेरोजगारी में आत्महत्या कर रहे हैं। अब तो आईएएस अधिकारी को भी ठेकेदारी प्रथा में लाने की औपचारिकता शुरू हो गई है। शिक्षक को वेतन नहीं मिल रहा है और दलीय राजनीति से ऊपर उठकर इस पर कोई बात करने को तैयार नहीं है।
ठेका कर्मचारी संयुक्त मोर्चा के अध्यक्ष इंजीनियर डीसी कपिल ने कहा कि सरकारें चुनावों के दौरान इन मजदूरों को लुभाने के लिए उन्हें पक्का करने जैसे तमाम वायदे करती हैं परंतु चुनावों के बाद उन्हें पूरी तरह से भूल जाती हैं। उन्होंने कहा कि अनिवार्य सेवाओं में जैसे बिजली, पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे विभागों में जहां नियमित कर्मचारी होने चाहिए, वहां भी ठेका मजदूरों को नियुक्त किया जा रहा है।
‘‘हिंसा मुक्त भारत‘‘ अभियान कार्यक्रम की कड़ी में हुए इस गोष्टी में 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के संदर्भ में विद्वान वक्ताओं ने चिंता व्यक्त की कि आम जनता का इतना गंभीर मुद्दा किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में क्यों नहीं है। चर्चा में भाग लेने वाले प्रमुख वक्ताओं में प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा, अधिवक्ता सुजीत सम्राट, अधिवक्ता भवन प्रताप सिंह, ए सी माईकल, के सी पिप्पल, आईईएस (सेवानिवृत्त), संयोजक पी जोश, सुभाष भटनागर, सचिव, निर्माण मजदूर पंचायत संगम शामिल रहे।
परिचर्चा में प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा ने ने अपने संबोधन में यह मुद्दा उठाया कि रोजगार देने वाले नियोजकों और कार्मिकों के बीच में बिचैलियों अर्थात ठेकेदारों का रोल समाप्त होना आवश्यक है। जबकि विगत वर्षो में देखा जा रहा है कि राज्य और केंद्र सरकार अपने नागरिकों को अनुबंधित रोजगार देती है तो उसकी प्रक्रिया में निस्संदेह विचैलियों द्वारा विभिन्न तरीकों से श्रमिकों/कार्मिकों का शोषण किया जाता है। हर सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि देश के संस्थानों में वे पारदर्शी तरीके से स्वयं नियोजन करें जबकि इस तरह के शोषण को रोकने में वह विफल रही हैं।
जानी-मानी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने भी अपने संबोधन में उपरोक्त विषय की गंभीरता को समझते हुए सरकार द्वारा रोजगार के दायित्व को सही तरीके नहीं निभा पाने को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि यह देश के उन करोड़ों रोजगार की कतार में लगे हुए नौजवानों के साथ धोखा है और उनके भविष्य के साथ रोजगार के नाम पर छल है। आगामी आम चुनाव में सभी राजनीतिक पार्टियों द्वारा इसे एक ज्वलनशील मुद्दे के तौर पर उठाना चाहिए।
बहुजन समाज पार्टी के नेता एडवोकेट सुजीत सम्राट ने कहा कि रोजगार हेतु ठेकेदारी प्रथा न केवल श्रमिकों का शोषण करती है, बल्कि एससी/एसटी/ओबीसी लोगों को आरक्षण के लाभ से भी वंचित करती है।
यह गरीबों को कई तरह से प्रभावित करता है और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वे पैसे की कमी के कारण अपने बच्चों को शिक्षित करने में असमर्थ हैं और समय देने में भी असमर्थ हैं क्योंकि उन्हें परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए रोजाना 12 घंटे तक काम करना पड़ता है। इस तरह वे आर्थिक तंगी का शिकार हो रहे हैं और आखिर कब तक सरकार के पांच किलो अनाज पर निर्भर रहेंगे?
सेमीनार की अध्यक्षता कर रहे बहुजन एकता मंच के चेयरमैन एस एस नेहरा साहब ने कहा कि समाज में बढ़ती हिंसा का मुख्य कारण आर्थिक असमानता है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत की शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का 72 प्रतिशत हिस्सा है। 2017 में उत्पन्न 73 प्रतिशत संपत्ति सबसे अमीर 1 प्रतिशत के पास चली गई, जबकि 67 करोड़ भारतीयों (50 प्रतिशत), जो सबसे गरीब हैं, उनकी संपत्ति में केवल 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
कार्यक्रम के संयोजक पी. आई. जोस ने बताया कि इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के 1960 में मानक वैक्यूम मामला, 1971 में वेगोइल्स (पी) लिमिटेड मामला, 1985 में एफसीआई मामला, 1991 में जैकब का मामला, 2001 में अनुबंध श्रम प्रणाली को खारिज करने वाला सेल मामले से शुरू होने वाले कई फैसले उल्लेखनीय हैं। इसके बावजूद भी, पिछले दशक के दौरान राज्य और उसके अंग जिनमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय भी शामिल हैं, शोषणकारी अनुबंध पर आधारित रोजगार प्रणाली के स्थान बन गए हैं। उन्होंने टीओआई की 30.11.2016 की एक रिपोर्ट की ओर इशारा किया जिसमें केन्द्रीय कैबिनेट मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि सरकारी तेल कंपनी रुपये का भुगतान करती है। ठेकेदार को ड्राइवर के लिए 15,000 रुपये ही देते हैं। ड्राइवर को 3,000 रु. इतनी प्रत्यक्ष जानकारी के बावजूद सरकार इसे स्पष्ट रूप से बढ़ावा दे रही है।
फिर भी, 11.07.2022 की एक अन्य रिपोर्ट कहती है कि दिल्ली में 95 प्रतिशत श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी नहीं दी जाती है। उनका कहना है कि आंकड़े हमें घूर रहे हैं। 2022 में सरकारी पोर्टल पर 28 करोड़ श्रमिकों में से 94 प्रतिशत से अधिक कर्मचारी प्रति माह 10,000 से कम कमाते हैं और उनमें से 74 प्रशित एससी/एसटी/ओबीसी से संबंधित लोग हैं।
2016 में वेतन आयोग ने पाया कि एक कर्मचारी को अपने जीवन निर्वाह के लिए कम-से-कम 18,000 रुपये प्रतिमाह न्यूनतम वेतन मिलना आवश्यक है। सरकार और अदालत परिसरों में अनुबंध श्रम प्रणाली की स्वीकृति ने निजी क्षेत्र को अनुबंधित श्रमिकों का बेधड़क शोषण करने के लिए छोड़ दिया है। कल्पना कीजिए कि इस देश के गरीबों से कितनी रकम लूटी जा रही है। आज भारत के पास लगभग 52 करोड़ कार्यबल है। उनमें से आधे से अधिक न्यूनतम वेतन से भी कम कमाते हैं। ठेकेदार करीब एक लाख रुपये ले जाते हैं। सरकारी नौकरी के मामले में भी एक कर्मचारी से 5,000 से 6,000 प्रति माह। यदि यहां 28 करोड़ श्रमिकों के लिए 5,000 रुपये प्रति श्रमिक श्रमिक के हिसाब से कैलकुलेट किया जाता है, तो इस देश में गरीबों से प्रति वर्ष 16 लाख करोड़ रुपये से अधिक की लूट होती है। फार्मूला रू (28 करोड़ श्रमिक Û रु. 5,000 Û 12 महीने)।